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छत्तीसगढ़ की कला एवं संस्कृति Art and Culture of Chhattisgarh

छत्तीसगढ़ की महान कला एवं संस्कृति

कला , संस्कृति की वाहिका है जिस प्रकार भारत की कला में भिन्नता है उसी प्रकार छत्तीसगढ़ की कला एवं संस्कृति भी बहुआयामी है वनों से आच्छादित व आदिवासी अधिकता के कारण यहां की कला में वनों , प्रकृति , प्राचीन और परम्परा का विशेष स्थान व महत्व है। छत्तीसगढ़ की कला में हमें विभिन्न प्रकार के लोक नृत्य , जातियां , लोक कला , मेले , विभिन्न भाषा , शिल्प और विशेष व्यंजन देखने को मिलते हैं। प्रदेश में यहां के आभूषणों , वस्त्रों का विशेष स्थान है जो यहां की संस्कृति को और प्रभावशाली व समृद्ध बनाती हैं सरल जीवन जीते हुए यहां के लोग अपनी परम्परा , रीति रिवाज और मान्यताओं का पालन करते है। समय-समय पर ऋतुओं , तिथि और त्योहार अनुसार विभिन्न उत्सवों और संस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन भी किया जाता है प्रत्येक गांव, जिले, क्षेत्र की अपनी अलग मान्यताएं, पहचान व धार्मिक महत्व हैं। माना जाता है कि कला का प्राण है रसात्मकता। रस अथवा आनन्द अथवा आस्वाद्य। कला के द्वारा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक संस्कृति व परम्पराओं का प्रदान होता है छत्तीसगढ़ की कला जहाँ एक ओर तकनीकी और वैज्ञानिक आधार रखती है, वहीं दूसरी ओर रस एवं भाव को सदैव प्राणतत्वण बनाकर रखती है।

“ कला के जिंहा भरमार हे
संस्कृति जिंहा के तिहार है
वानी मा जिंहा पियार हे
अबड़ सुघ्घर उहां के संस्कार हे ।
विभिन्न संस्कृतियों के संगम हे
तरह-तरह के व्यंजन हे
खेलों के विभिन्न परकार हे
सरलता के उहां सार हे ।। ”

छत्तीसगढ़ के गौरवशाली अतीत व संस्कृति के परिचायक कुलेश्वर मंदिर राजिम , सिद्धेश्वर मंदिर पलारी , स्वास्तिक बिहार सिरपुर , शिव मंदिर चन्दखुरी और आनंद प्रभु कुटी विहार , महामाया मंदिर रतनपुर , भोरमदेव मंदिर कवर्धा , जगन्नाथ मंदिर खल्लारी और बत्तीसा मंदिर बारसूर सहित पुरातत्वीय दृष्टि से महत्वपूर्ण 58 स्मारक को राज्य संरक्षित स्मारक घोषित किया गया हैं।


छत्तीसगढ़ की प्रमुख जातियां

छत्तीसगढ़ में सम्पूर्ण भारत की विभिन्न जातियां निवास करती हैं और यहां बहुत से आदिवासी , अनुसूचित जाति , अनुसूचित जनजातियां व पिछड़ा वर्ग भी निवास करते हैं। जिनमें अघरीया , बिंझवार , उरांव , गोंड , भतरा , हल्बा , सवरा , कंवर आदि प्रमुख जनजातियां हैं और बैगा , पहाड़ी कोरवा , अबूझमाड़िया , कमार , बिरहोर प्रमुख विशेष पिछड़ी जातियां हैं इनके अनुसार अन्य जनजाति समूह भी यहां निवास करती हैं परंतु इनकी संख्या अपेक्षाकृत कम है। छत्तीसगढ़ की कुछ जातियों के बारे में विस्तार से जानकारी

छत्तीसगढ़ की प्रमुख जनजातियों में से एक यहां बहुतायत से निवासरत धनवार ( धनुहार ) जनजाति है इन्हें लोड़ा और बैगा के नाम से भी जाना जाता हैं।

गोंड

गोंड जनजाति छत्तीसगढ़ की प्राचीन व दक्षिण क्षेत्र की प्रमुख जनजाति है इनकी जनसंख्या अधिक है और यह छत्तीसगढ़ के पूरे अंचल में रहते हैं प्राचीन छत्तीसगढ़ ( महाकौशल ) के अधिकांश भाग को गोंडवाना के नाम से पुकारा जाता था इनके कई वंशो के द्वारा छत्तीसगढ़ पर शासन भी किया गया है स्वतंत्रता प्राप्ति के पहले छत्तीसगढ़ की 14 रियासतों में से चार रियासतें रायगढ़ , शक्ति , सारनगढ़ और कवर्धा गोड रियासतें थी यह जनजाति मुख्यता गांवों में निवास करती है इनका मुख्य व्यवसाय खेती और लकड़हारे का कार्य है इनकी खेती प्रथा को डिप्पा कहा जाता है और यह काफी ईमानदार होते हैं गोड अपने श्रेष्ठ सौंदर्यपरक संस्कृति को विकसित करने के लिए प्रसिद्ध है बस्तर की गोड जनजातियों को महत्वपूर्ण उनके सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन के लिए समझ जाता है गोंडो का इतिहास और संस्कृति व कला काफी वैभवशाली है।

बैगा

बैगा जाति में नृत्यों की विविधता है जिसे विभिन्न अवसरों व आयोजनों में किया जाता है इस जनजाति के प्रमुख नृत्यों में दशहरा , बिलमा , बैगानी करमा और परधौनी नृत्य है। इसके अलावा विभिन्न अवसरों पर बैगा झरपट , घोड़ा पैठाई तथा फाग नृत्य व रीना भी किया जाता है निर्विवाद है कि बैगा जनजाति जितने नृत्य करती है और उनमें जैसी विविधता है वैसी संभवतः किसी और जनजाति में कठिनाई से मिलेगी विवाह के अवसर पर बारात की अगवानी के समय किया जाने वाला नृत्य बैनृत्यगा करधौनी है इसी अवसर पर लड़के वालों की ओर से आंगन में हाथी बनकर नचाया जाता है इसमें विवाह के अवसर को समारोहित करने की कलात्मक चेष्टा है होली के अवसर पर बैगा फाग किया जाता है इस नृत्य में मुखौटे का प्रयोग भी किया जाता है।

मुरिया

सौन्दर्यबोध , कला परम्परा और कलात्मक रुझान की विविधताओं के लिए प्रसिद्ध बस्तर की मुरिया जनजाति छत्तीसगढ़ की प्रमुख जातियों में से एक है इस जनजाति के मांदरी , ककसार , गेंड़ी नृत्य अपने अत्यंत कोमल संरचनाओं , गीतात्मक और सुन्दर कलात्मक विन्यास के लिए प्रख्यात है। मुरिया जनजाति में माओपाटा के रूप में एक आदिम शिकार नृत्य-नाटिका का प्रचलन भी है , जिसमें उल्लेखनीय रूप से नाट्य के आदिम तत्व मौजूद हैं। अत्यधिक गतिशील गेंड़ी नृत्य को गीतों के बिना किया जाता है प्रदर्शनकारी नृत्य रूप के दृष्टिकोण से यह मुरिया जनजाति के जातिगत संगठन में युवाओं की गतिविधि के केन्द्र घोटुल का प्रमुख नृत्य है धार्मिक नृत्य गीत ककसार है व नृत्य के समय युवा पुरुष नर्तक द्वारा अपनी कमर में पीतल अथवा लोहे की घंटियां बांधी जाती है छतरी और सिर पर आकर्षक सजावट भी किया जाता हैं।

हल्बा

यह जनजाति धमतरी , रायपुर , दुर्ग , बस्तर व अन्य क्षेत्रों में निवासरत है। छत्तीसगढ़ीयां , बस्तरहा व हल्बाओं , मरेथियां की शाखाएँ हैं हल्बा कुशल कृषक होते हैं और अधिकांश हल्बा लोग शिक्षित होकर शासन में ऊँचे-ऊँचे पदों पर पहुँच गये हैं अन्य समाजों के सम्पर्क में आकर इनके रीति-रिवाजों में भी पर्याप्त परिवर्तन हुआ है। व यह छत्तीसगढ़ की प्रमुख जातियों में से एक है।

अन्य जातियां

छत्तीसगढ़ की अन्य प्रमुख जातियां उराॅव , कंवर , अहिरवार , भारिया , भैना , बिंझीया , बिंझवार , नगेशिया , भुंजिया , खरिया , मुड़िया , कमार , माड़िय , धनवार , भतरा , कोरवा , सिदार , विआर , पारधी , महार , महरा , माहरा , खैरवार , बियार , गांड़ा या गड़वा , भुंजिया , मंझवार , आदि हैं।

लोकगीत और लोकनृत्य

छत्तीसगढ़ ही नहीं अपितु पूरे भारत में गीतो और नृत्यों की की विविधता अतिसुंदर , मनभावन व प्रसिद्ध है इनका हमारे इतिहास में अलग ही महत्व रहा है छत्तीसगढ़ ने भी अपने लोकनृत्यों और लोकगीतों के द्वारा अपनी कला संस्कृति को बरकरार रखा है यहां कई प्रसिद्ध लोकगीतों व लोकनृत्यों का उदय हुआ है भाव प्रवणता यहां के लोकगीतों के प्राणतत्व है ये अमूमन गेय और छोटे होते है छत्तीसगढ़ के प्रमुख और लोकप्रिय गीत पंडवानी , सुआ गीत , करमा , भरथरी लोकगाथा , राउत गीत और जस गीत , गऊरा गऊरी गीत , बाँस गीत , चनौनी , देवार गीत , फाग , भोजली , डण्डा , ददरिया व पंथी गीत आदि हैं। इसके साथ डण्डा , करमा , सुआ और पंथी गीत में नाच न खान भी शामिल है।

छत्तीसगढ़ में विभिन्न आयोजनों , त्योहारों , उत्सवों , समयों और ऋतुओं में अलग-अलग गीत गाया जाता हैं यहां हर जाति की अपनी अलग पहचान , मान्यताएं , लोकगीत , लोक परंपरा और नृत्य है जो अति समृद्ध हैं हर गीतों के यहां साथ अलग वेशभूषा भी पहनी जाती है जो काफी आकर्षक होती है। इस प्रकार इस प्रदेश के लोकगीत और लोकनृत्य उन्नत , महान है जो केवल छत्तीसगढ़ में ही नहीं अपितु पूरे भारत और भारत के बाहर की प्रसिद्ध है।

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छत्तीसगढ़ के खेल

खेल हमारे जीवन खासकर बाल्यावस्था का एक महत्वपूर्ण भाग है जिससे हमारा मानसिक और शारीरिक विकास होता है यह स्वास्थ्य के लिए अति महत्वपूर्ण है और यह मनोरंजन के प्रमुख साधनों में से एक हैं हम सभी ने अपने बचपन में कोई ना कोई खेल खेला होगा इसी प्रकार छत्तीसगढ़ में भी बहुत से खेल प्रचलित है।

अटकन - बटकन

अटकन - बटकन छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध बाल खेलो मे से एक है। इस खेल में बच्चे एक साथ बैठकर एक गोलाकार घेरा बनाते हैं सभी अपने हाथों के पंजों को जमीन में रखकर इस खेल का आरंभ करते हैं एक बच्चा अगुवा की भूमिका निभाते हुए अपने दाहिने हाथ की तर्जनी उंगली से सभी के हाथों को छूता है और सभी लोग गीत गाते हैं गीत के समाप्त होने पर जिस किसी बच्चे के हाथ पर अगुवे की उंगली होती है वह अपने हाथों को सीधा कर लेता है। इसी प्रकार जब खेल में सभी के हाथ सीधे हो जाते हैं तो अंतिम बच्चा इस खेल को गीत गाकर आगे बढ़ता है और अंत में सभी बच्चे एक दूसरे के कानों को पकड़कर गीत गाते हैं। यह खेल छत्तीसगढ़ में बहुत प्रसिद्ध है।

खुडुवा (कबड्डी)

खुडुवा पाली दर पाली कबड्डी खेल का ही एक रूप है परंतु इसमें दल निर्मित करने के नियम कबड्डी से अलग है दो लड़के इस खेल के अगुवे ( कैप्टन ) होते हैं और बाकी खिलाड़ी दो-दो की संख्या में जोड़ी बनाकर किसी भी शब्द का गुप्त नाम रखते हैं और वापस आकर दोनों कैप्टन को अपना नाम बताते हैं दोनों अगुवे में से जो अगुवा जिस नाम को चुनता है वह जिस बच्चे का गुप्त नाम होता है वह उसके दल या टीम में चले जाता है इस प्रकार एक दल का निर्माण होता है इस खेल में सामूहिक निर्णय लिया जाता है और निर्णायक की भूमिका नहीं होती है।

फुगड़ी


फुगड़ी छत्तीसगढ़ की बालिकाओं द्वारा खेला जाने वाला एक प्रसिद्ध खेल है इसे बालक भी खेल सकते हैं चार या छः लड़कियां एक साथ इकट्ठा होकर ऊंखरु बैठती है व पैर को लोच के साथ बारी-बारी से पैर को पंजों से आगे - पीछे करते है सांस भरने से या थककर जिस खिलाड़ी के पांव रुक जाते हैं वह खेल से बाहर हो जाती है यहां भी छत्तीसगढ़ का काफी प्रसिद्ध खेल है।

लंगड़ी

लंगड़ी छू छुओवल के समान खेला जाने वाला खेल है यह चालाकी और वृद्धि चातुर्थ का खेल है इसमें एक खिलाड़ी अपने एक पैर को उठाकर अपने दूसरे पैर से आगे बढ़ता है व वह खिलाड़ी जो अपने पैर को नीचे रख देता है वह बाहर हो जाता है। यह छत्तीसगढ़ में खेला जाने वाला एक आम , मजेदार और प्रसिद्ध खेल है।

छत्तीसगढ़ की कला

किसी भी राज्य की कला वहां के राज्य , प्रदेश के नाच और गीतों के साथ वहां के आम जीवन , वस्तुओं , लोक कलाओं से भी समझी जा सकती है छत्तीसगढ़ में इसमें यहां की विभिन्न लोक कला जैसे :- लौह शिल्प कला , गोदना कला , विभिन्न बांस कला व लकड़ी की नक्काशी कला आदि शामिल हैं जिनके बारे में नीचे विस्तार से दिया गया है। छत्तीसगढ़ में कला का क्षेत्र अति व्यापक है यहां सिरपुर महोत्सव , राजिम कुंभ , चक्रधर समारोह और बस्तर लोकोत्सव आदि जैसे सांस्कृतिक उत्सवों का आयोजन किया जाता है जो छत्तीसगढ़ राज्य के महान व जीवंत सांस्कृतिक को प्रदर्शित करते हैं।

गोदना कला

गोदना कला छत्तीसगढ़ की विभिन्न जनजातियों द्वारा किया जाने वाले प्राचीन कला है गोदना से तात्पर्य चुभन से है अर्थात सुई या किसी अन्य वस्तु से शरीर को छुपाकर नीले या काले लेट से विभिन्न गोदना कलाकृतियां बनाई जाती है आसान भाषा में आप इसे वर्तमान की टैटू की तरहा कह सकते हैं परंतु यह उससे प्राचीन है और इसके कई पारंपरिक महत्व भी बताया जाते हैं। छत्तीसगढ़ के सरगुजा , बस्तर अंचल व विशेष जनजातियों में इसका विशेष महत्व है आज यह केवल शरीर में ही नहीं इसका उपयोग कपड़ों में भी किया जाने लगा है कई स्थानों पर यह परंपरा धीरे - धीरे कम हो रही है जिस कारण इस कला के विलुप्त होने का धीरे - धीरे डर बना हुआ है कपड़ों पर इन कलाकृतियों और आकृतियों को बनाकर इस कला को संरक्षित किया जा सकता है शासन के द्वारा भी इसमें सहयोग किया जाता है इसके लिए प्राकृतिक वस्तुओं का उपयोग किया जाता है और आज के आधुनिक युग में इसमें आधुनिकता भी आई है।

बांस कला

शुरुआत से ही प्रकृति का महत्व मानव जीवन में रहा है मानव अपने उपयोग के लिए कई वस्तुएं प्रकृति और खासकर पेड़ों से ही प्राप्त करता है छत्तीसगढ़ भी एक प्रकृति , घने - जंगलों और आदिवासी अंचल है और यहां के जातियों द्वारा प्रकृति व पेड़ों का उपयोग किया जाता है जिनमें बास कला काफी प्रसिद्ध है केवल छत्तीसगढ़ ही नहीं परंतु पूरे भारत में खासकर पूर्वोत्तर भारत में और मध्य भारत के भी क्षेत्रों में बांस का उपयोग किया जाता है बांस से झोपड़ियों का निर्माण व अन्य घरेलू सामानों का भी निर्माण किया जाता है। छत्तीसगढ़ की जातियां बांस का उपयोग करने में काफी निपुण और उन्नत है यहां बांस के विभिन्न सामानों का निर्माण किया जाता है जिनमें टुकना - टुकनी ( सबसे सामान्य और अधिक प्रयोग किया जाने वाली बांसो से बनी टोकरी ) , गप्पा , झावाॅं , चाप , बिज बौनी , ढूठी , डाली , पर्रा - बिजना , ढालांगी , चोरिया , बिसड़ , धीर , झांपी , थापा , चुरकी , हाथ खांडा , पाय मांडा , मूड़ा / खोमरी , झाल / छारनी , छतौड़ी , और सूपा ( इसका उपयोग धान और अनाज को साफ करने के लिए किया जाता है ) आदि प्रमुख हैं। इस प्रकार यहां की बांस कला अति उन्नत है।
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बेल धातु

बेल धातु या बेल मेटल आर्ट एक खास प्रकार की कला है जिसमें विभिन्न धातुओं जैसे पीतल , एल्युमीनियम आदि का उपयोग कर विभिन्न प्रकार की प्रतिमाओं का निर्माण किया जाता है। इसे मुख्यता बस्तर संभाग व उसके आसपास के क्षेत्रों में बनाया जाता है इसे झारा शिल्प या डोकरा ( बुजुर्ग ) आर्ट के नाम से भी जाना चाहता है आज यज्ञ कला केवल भारत में ही नहीं अपितु भारत से बाहर भी काफी प्रसिद्ध है इन आकृतियों को बनाने के लिए आज भी प्राचीन विधि जैसे मोम क्षय विधि आदि का प्रयोग होता है इसमें बहुत बारीक कार्य भी किया जाता है। इन कलाकृतियों को तैयार करने में एल्युमीनियम , जस्ता , कांसा , तांबे और पीतल आदि धातुओं का प्रयोग किया जाता है। यह छत्तीसगढ़ का ऐसा शिल्प है जिसे छत्तीसगढ़ से बाहर भी जाना जाता है और यह काफी प्रसिद्ध भी है। समय - समय पर देश के विभिन्न शहरों व मुख्य स्थानो में इस कला की प्रदर्शनी भी लगाई जाती है।

सूती वस्त्र

बस्तर की भुमि में आपको विभिन्न प्रकार की कला देखने को मिलती है जिनमें सूती कपड़ों की कला काफी प्रसिद्ध है प्रकृति , वनों से प्राप्त एक प्रकार के कीड़ों से कोसा धागा प्राप्त किया जाता है फिर उसे हाथों से ही बुनकर उसमें भिन्न प्रकार की कलाकृतियां की जाती है और इस प्रकार बस्तर सूती वस्त्र को तैयार होता है ये काफी आकर्षक होते है वस्त्रों में जंगलों से प्राप्त प्रकृतिक वनस्पति डाई से हाथ की छपाई की जाती है।

लोह शिल्प कला


लौह शिल्प भी बस्तर से संबंध रखता है यह कार्य वहां के लोहार जाति द्वारा किया जाता है इसमें मुख्यता स्क्रैप लोहे का प्रयोग कर विभिन्न प्रतिमाएं व लैंप , संगीतकारों के पुतले और खिलौनों का निर्माण किया जाता है। यह बस्तर के उन्नत कला को दर्शाती है और छत्तीसगढ़ की कलाओं में इसका एक अलग स्थान है।

टेराकोटा कला

टेराकोटा कला या मृणशिल्प वे शिल्प होते हैं जिनमें मिट्टी को पकाकर बर्तनों अथवा मूर्तियों का निर्माण किया जाता है मिट्टी की कला को विश्व की प्राचीनतम कला में से एक माना जाता है जिससे आज भी बस्तर में जीवंत रखा गया है इसमें अधिकांशतः बाघ , बैल , हाथी , घोड़ा एवं बेन्द्री आकृतियां बनाई जाती हैं। इनका मुख्य उपयोग आदिवासी जीवन के अनुष्ठानों , भावनाओं के प्रतीक , चढ़ाने और रीति रिवाज के प्रतिनिधित्व के रूप में किया जाता है इनमें काफी सुंदर कलाकृतियां व आकृतियां भी बनाई जाती है।

छत्तीसगढ़ लोक नाट्य

लोकनाट्य छत्तीसगढ़ की पुरानी पारंपरिक कला है यह छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक आत्मा है लोकनाट्य में गीत , संगीत और नृत्य होते हैं इन्हें कथा सूत्र में पिरोकर प्रेरणादायक सरस मनाया जाता है ताकि आम जनमानस को अच्छे गुणों के लिए प्रेरित कर सकें। छत्तीसगढ़ के रंगकर्म के इतिहास के युगांतकारी दौर के रूप में अठारहवीं सताब्दी के पूर्वार्ध को सदा याद किया जाएगा क्योंकि इसी काल में मराठाओं के प्रभाव के कारण नाचा और गम्मत आदि की विधाओं का प्रदेश में विकास हुआ इसके पश्चात छत्तीसगढ़ के रंगकर्म के इतिहास में अंतिम तीन चार दशक को भी सदा स्मरण रखा जाएगा। इस विधा में मुख्य रूप से नाचा , भतरा नाट , पंडवानी , रहस , माओपाटा , राई , दाहिकांदो , खम्ब स्वांग और गम्मत आदि विधाएं शामिल हैं जो छत्तीसगढ़ के लोकनाट्य को विविध , अति मनोरंजनपूर्ण व मनोरम बनाती हैं।

भित्ति चित्रण

भित्ति चित्रण एक प्रकार की चित्रकला विधि है जिसका उपयोग कर दीवारों व गुफाओं में चित्रण किया जाता है इसे प्राचीनतम कलाओं में से एक माना जाता हैं इसके अवशेष विभिन्न गुफाओं में भी मिले हैं। जिसे आज भी छत्तीसगढ़ में सहेज कर रखा गया है इसमें दीवारों पर कलापूर्ण अभिप्राय , ज्यामितिक आकार , पारंपरिक आकल्पन , अनुकरणमूलक और सहज बनावट सरल आकृतियों में निहित स्वच्छंद आकल्पन , रेखिक ऊर्जा और उन्मुक्त आवेग , अनूठी ताजगी और चाक्षुष सौंदर्य सृष्टि करती है। भित्ति चित्रण एक पारंपरिक कला है जिसे विभिन्न अवसरों जैसे विवाह बच्चे के जन्म या इच्छा पूरा होने के अवसर पर किया जाता है।

तुम्बा कला

तुम्बा कला एक ऐसी कला है जिसमें लौकी के अंदर के भाग को निकालकर उसके बाहर के भागों को सुखाया जाता है इसके पश्चात उनमें विभिन्न आदिवासी आकृतियां व कलाकृतियां बनाई जाती है जिसका उपयोग पानी को संचित करने व अन्य सामानों को रखने में किया जाता है। यह आदिवासियों द्वारा प्रकृति व उसके संसाधनों के बेहतरीन उपयोग को दर्शाती है और इसमें रखा गया पानी काफी समय तक ठंडा रहता है तुंबा का उपयोग कर एक प्रकार का वाद्य यंत्र व लैंप का भी निर्माण किया जाता है।

निम्नलिखित कलाओं व लेखों द्वारा हमें यह ज्ञात होता है कि छत्तीसगढ़ की कलाएं महान , उन्नत व प्रभावशाली , प्रसिद्ध है जिसमें बस्तर का एक खास स्थान व महत्व है परन्तु आज के आधुनिक युग में बाकी के कला व परंपराओं के विलुप्त होने के साथ इन कलाओं के भी विलुप्त होने का डर बना हुआ है। यह हमारा कर्तव्य है कि हम अपनी इन कलाओं को बरकरार रखे आधुनिक युग में इन्हें अंतरराष्ट्रीय व राष्ट्रीय मंच मिले है जिस कारण यहां की कलाएं भी बाहर पहचानी जाती है छत्तीसगढ़ सरकार के द्वारा भी इन शिल्पों व कलाओं को आगे बढ़ाने और संरक्षित करने के लिए विभिन्न प्रयास किए हैं व विभिन्न संस्थाओं का निर्माण भी किया गया है जिनमें प्रमुख छत्तीसगढ़ हस्तशिल्प विकास बोर्ड , पुरातत्व एवं संस्कृति विभाग , राज्य लोक कला परिषद आदि हैं हमें भी इन कलाओं की सहायता करनी चाहिए अधिक से अधिक लोगों को इन कलाओं के बारे में बताना चाहिए ताकि यह और प्रसिद्ध हो और सभी इन कलाओं के बारे में जान सके।

छत्तीसगढ़ की कला संस्कृति काफी महान है जिसे एक बार में ही लिखा जाना कठिन है यदि इसे एक भाग में हीं लिखा जाए तो यह काफी लंबा हो जाएगा इसलिए हमने इसके दूसरे भाग का भी निर्माण किया है जिसे आप नीचे क्लिक करके देख सकते हैं।
छत्तीसगढ़ की कला एवं संस्कृति : भाग - दो




छत्तीसगढ़ की प्रमुख जानकारियां , शिक्षा
छत्तीसगढ़ का संपूर्ण इतिहास
छत्तीसगढ़ के पर्यटन स्थल और भूगोल
( अर्थव्यवस्था , जनसंख्या )

छत्तीसगढ़ी भाषा
छत्तीसगढ़ की खास बातें , राजधानी

भारत 🇮🇳🇮🇳

आपने अपने बचपन में कौन - सा खेल खेला है और छत्तीसगढ़ की आपकी फेवरेट कला का नाम जो आपको बेहद पसंद हैं का नाम कमेंट करना ना भूलें आपको हमारा ये लेख (आर्टिकल) छत्तीसगढ़ की कला एवं संस्कृति Art and Culture of Chhattisgarh कैसा लगा , अपनी राय लिखें और यदि आप चाहते हैं कि हम किसी अन्य विषय पर भी निबंध , कविता या लेख लिखे तो आप कमेंट के द्वारा हमें अपने सुझाव व विषय दे सकते हैं।
धन्यवाद ।

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